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आलैं दान्येलू
१९०७-१९९४

आलैं दान्येलू का जन्म नय्यी सुर सेन (पेरिस) में ४ अक्टूबर १९०७ को हुआ था। उनकी माता, मादलेन क्लामोर्गन एक पुराने और उच्च नार्मन परिवार की वंशज थीं। वे एक निष्ठावान कैथोलिक थीं और उन्होंने एक फ्रांसीसी धार्मिक सम्प्रदाय के साथ-साथ सुप्रसिद्ध “सेंट मारी” शिक्षण संस्थाओं की भी स्थापना की। उनके पिता ब्रिटनी प्रान्त के एक राजनीतिज्ञ थे, और पादरियों के विरोधी, और वे कई बार सरकार के मंत्री रहे। आलैं दान्येलू के भाई ने पादरी संघ में सदस्यता ले ली और उसे पोप पाल ने कार्डिनल बना दिया।
आलैं दान्येलू ने अपना अधिकांश बचपन देहात में बिताया, निजी शिक्षकों, एक पुस्तकालय और पियानों के साथ।
इन सालों में उनका परिचय संगीत और चित्रकला से हुआ। तत्पश्चात् उन्होंने फ्रांस छोड़कर ऐनापोलिस (अमेरिका) में एक अमरीकी स्कूल में दाखिला लिया, जहाँ वे अपने बनाए चित्रों को बेचकर और मूक फिल्मों के छविगृहों में पियानो बजाकर अपना हाथ खर्च चलाते थे। फ्रांस में अपनी वापसी के बाद उन्होंने मशहूर शर्ल्स पंजेरा निजीन्सकी के अधीन रहकर गायन सीखा, निकोला लेगा (निजीन्सकी के गुरु) से शस्त्रीय नृत्य और माक्स दोलोन से संगीत रचना। वे संगीत कार्यक्रम दिया करते थे और अपने चित्रों की प्रदर्शनी लगाया करते थे।
एक मंजे हुए खिलाड़ी, आलैं दान्येलू नौकायन के चैम्पियन थे और तेज कारों के कुशल चालक भी। उन्होंने १९३२ में अफगानिस्तान की पामीर पर्वत श्रंखला की खोजी यात्रा की और १९३४ में पेरिस से कलकत्ता तक कार द्वारा एक सहनक्षमता कसौटी पर खुद को कसा। बीच-बीच में वे अंरीद मंफ्रे के साथ लाल सागर स्थित ओबोक पर, उनकी जागीर में भी रहे।
१९२७ और १९३२ के बीच उनकी मुलाकात जन कोक्तो, जन मारे सेजं दियागिलेव, स्ट्राविन्सकी, मैक्स जाकोब अंरी सोगे निकोला, मोरीस नबोकोबंसाश इत्यादि से हुई और उन्होंने इस कालावधि के कलात्मक उठाह में भी हिस्सा लिया। स्विस फोटोग्राफर वरिष्ठ धर्म गुरु रेमं बरन्ये, के साथ फिर वे पूर्व के लिए प्रस्थान कर गये। उत्तरी अफ्रीका, मध्य-पूर्व, भारत, इंडोनेशिया, चीन और जापान में यात्रा करते हुए उन्होंने अन्ततोगत्वा भारत में डेरा जमाया, रविन्द्र नाथ टैगोर के साथ जिन्होंने उन्हें अपने मित्रों (पोल वलेरी, रोमैं रोलां, अंठ्रे जीव, पोल मोरं, बेने देतो क्रोस) के पास जरूरी कार्य सौंपे और उन्हें शान्ति निकेतन में स्थित अपने संगीत विद्यालय का निदेशक नियुक्त किया।
इस अवधि के दौरान आलैं दान्येलू कामकाज से सन्यास लेकर बनारस आ गये और रीवा कोठी नामक गंगा किनारे स्थित उक्त कोठी में रहने लगे। बनारस में उनका परिचय भारत की पारम्परिक संस्कृति से हुआ, जिसमें वे शनैः शनैः दीक्षित होने लगे। वे वहाँ पन्द्रह साल रहे। उन्होंने प्रतिष्ठित गुरु शिवेन्द्रनाथ बसु से भारतीय शास्त्रीय संगीत सीखा और एक हुनरबाज की तरह वीणा बजाना सीख लिया। उन्होंने हिन्दी भी पढ़ी, जिसे वे अपनी मातृ भाषा की तरह धाराप्रवाह बोल और लिख लेते थे, और संस्कृत और दर्शन शास्त्र भी — इन विषयों की परम्परा के सर्वोच्च गुरुओं के सान्निध्य में। इन लोगों ने उनका परिचय प्रसिद्ध संन्यासी स्वामी करपात्री जी से करवाया जिनके लेखों का उन्होंने आंशिक रूप से अनुवाद किया। करपात्री जी ने उन्हें शैव हिन्दू सम्प्रदाय के कर्मकाण्ड में दीक्षित किया “शिव शरण” (“शिव द्वारा रक्षित”) के नाम से। १९४९ में उन्हें हिन्दू विश्वविद्यालय में प्रोफेसर नियुक्त किया गया और भारतीय संगीत महाविद्यालय का निदेशक। उन्होंने रने गेनों के साथ शैव हिन्दू धर्म के दार्शनिक और धार्मिक दृष्टिकोण के बारे में पत्र-व्यवहार किया।
हिन्दू स्थापत्य-कला और वास्तु कला की प्रतीकात्मकता में अत्यधिक रुचि होने के कारण — जिसका उन्होंने गहन अध्ययन किया था — उन्होंने रेनं बरन्ये के साथ खजुराहो, भुवनेश्वर, और कोणार्क के अतिरिक्त मध्य भारत और राजपूताना की कई कम जानी-पहचानी जगहों की भी लम्बी अवधि की यात्राएँ कीं। १९५४ में उन्होंने बनारस छोड़कर मद्रास स्थित संस्कृत पांडुलिपियों के आड्यार पुस्तकालय के निदेशक का पद भार संभाला। १९५६ में उन्हें पांडिचेरी स्थित इंस्तितु फ्रंसे द ऐंदोलोजी का सदस्य मनोनीत किया गया और तदुपरान्त एकोल फ्रंसेज द एक्सत्रेम ओरियंत का भी, जिसके कि वे १९४३ से मानद सदस्य थे। जो लोग भारत से अंग्रेजों के प्रस्थान के लिये संघर्ष कर रहे थे उनसे सम्बद्ध होने के कारण और नेहरू परिवार, विशेषकर नेहरू जी की बहन (श्रीमती पंडित), कवियित्री सरोजनी नायडू और उनकी पुत्रियों, से भी सम्बद्ध होने के कारण उनकी सहानुभूति स्वाधीनता संग्राम से थी। भारत की स्वाधीनता के पश्चात् जब नयी सरकार ने पुरानी परम्पराओं पर प्रहार करना शुरू कर दिया, तो यह सुझाव दिया गया कि उनकी भूमिका पश्चिम में हिन्दुत्व की वास्तविक पहचान सामने लाने में अधिक उपयोगी रहेगी। लिहाजा वे यूरोप वापस लौट गये और उन्होंने १९६३ में फोर्ड फाउन्डेशन की सहायता से बर्लिन और वेनिस में तुलनात्मक संगीत अध्ययन के अन्तर्राष्ट्रीय संस्थान की स्थापना की। एशिया के महान संगीतज्ञों के संगीत समारोह आयोजित करके और परम्परागत संगीत के, यूनेस्को के तत्वावधान में, रिकार्ड संग्रह प्रकाशित करके उन्होंने पश्चिम द्वारा एशियाई कला संगीत की दोबारा खोज में अहम् भूमिका अदा की। वायलिन वादक येहुदी मेनुहिन, और सितार वादक पं० रविशंकर जैसे कलाकारों के लिए आलैं दान्येलू का कार्य भारत के शास्त्रीय संगीत को मान्यता दिलाने में निर्णायक साबित हुआ — एक ऐसी मान्यता जो इस संगीत विधा की तब तक चली आ रही लोक संगीत वाली पहचान से अलग हटकर पाश्चात्य संगीत के समकक्ष एक उदात्त और कौशलपूर्ण कला की थी।
आलैं दान्येलू ने धर्म — हिन्दू पोलीथीज्म / द मिथ्स् ऐन्ड गाड्स आफ इन्डिया (हिन्दू अनैकैसवरवाद / भारत के देवता एवं मिथक), समाज — वर्चू, सक्सेस, प्लेजर ऐन्ड लिबरेशन, द फोर एम्स् आफ लाइफ (धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष, जीवन के चार लक्ष्य), संगीत — द रागास आफ नार्दन इन्डियन म्युजिक, म्युजिक ऐन्ड द पावर आफ साउन्ड (उत्तर भारतीय संगीत के राग, संगीत और ध्वनि की शक्ति), स्थापत्य एवं वास्तुकला — विजाज द लैंद मेदिये वाल (मध्ययुगीन भारत की छवियां), ल तंप्ल ऐंदू (हिन्दू मन्दिर), ला स्कुल्तुर एरोतीक ऐंदू (कामोद्दीपक हिन्दू मूर्तिकला), लेरोतीस्म दिविनिजें (कथाएं-भूलभुलैया से), पर मौलिक कार्य प्रकाशित करने के अलावा भारतीय इतिहास पर एक पुस्तक और योग पर एक पुस्तक भी प्रकाशित की है। उनकी दोहरी (किन्तु किसी भी दृष्टि से बनावटी नहीं) संस्कृति ने अलैं दान्येलू को पाश्चात्य जगत् के प्रति एक बाहरी व्यक्ति का दृष्टिकोण प्रदान किया — एक ऐसा दृष्टिकोण जो कभी-कभी चकित कर देता है। अपनी दो कृतियों — गाड्स आफ लव ऐन्ड ऐक्स्टेसी, द ट्रेडीशन आफ शिव ऐण्ड डायोनाइसस (प्रणय और चरम सुख के देवता, शिव और डायोनाइसस की परम्परा) और व्हाइल द गाड्स प्ले-शैव आरेकल्स ऐन्ड प्रेडिक्शन्स आन द साइकल आफ हिस्ट्री ऐन्ड द डेस्टिनी आफ मैनकाइन्ड (“जिस दौरान देवता खेलते हैं”- शैव आप्त वचन और इतिहास-चक्र तथा मानवता की नियति पर भविष्यवाणियाँ) में वे एक ऐसे पाश्चात्य जगत जी समस्याओं से जूझते हैं जो रास्ता भटक गया है, और जिसने अपनी परम्पराओं को खोकर मानव को प्रकृति और दैवीय सत्ता दोनों से दूर कर दिया है। वे अपनी पुस्तकों में दिखाते हैं कि पाश्चात्य जगत् के प्राचीन रिवाज और मान्यताएँ शैव धर्म के अत्यन्त निकट हैं और उनकी व्याख्या भारत में वर्तमान रिवाजों और ग्रन्थों की मदद से बखूबी की जा सकती है।
उनकी कई कृतियों का प्रकाशन हाल में ही हुआ है, विशेषकर तमिल उपन्यास “मणिमेखलाई” का उनके द्वारा अनुवाद, द डान्सर विथ द मैजिक बाउल (जादुई कटोरे वाला नर्तक) टेल्स फ्राॅम द लेबिरिन्थ (लिंग पूजा सम्प्रदाय पर एक कार्य) और उनके द्वारा किया गया “काम-सूत्र” का पूर्णरूपेण अनुवाद (जिसका प्रकाशन १९९४ में महान सफलता के साथ किया गया)। उनकी अधिकांश कृतियाँ समकालीन रूप से अमरीका में प्रकाशित हुई हैं, जिनमें संस्मरण – द वे टु द लेबिरिन्थ – मेमोयर्स फ्राॅम ईस्ट ऐन्ड वेस्ट (भूलभुलैया पहुँचने का रास्ता – पुर्व और पश्चिम से जुड़े संस्मरण) सम्मिलित हैं। रविन्द्र नाथ टैगोर के अट्ठारह गीतों (मूल बंगला कथ्य एवं तत्सम्बन्धित रागिनियाँ) का लिपिकरण, अनुवाद और उनके सुरों का पियानो पर व्यवस्थापन (सब कुछ आलैं दान्येलू के द्वारा) भी प्रकाशन के लिए तैयार है।
१९८७ में उनके आठ दशक पूरे करने पर पेरिस ने उनका सार्वजनिक अभिनन्दन किया, उनके द्वारा सम्मान में शाॅ एलिजे में स्थित एस्पास प्येर कारदैं में, यूनेस्को के महासचिव और आलैं दान्येलू के कला जगत के असंख्य मित्रों की उपस्थिति में, एक समारोह आयोजित करके। अपने अन्तिम वर्षों में आलैं दान्येलू ने अपनी चित्रकारी गतिविधियाँ दोबारा प्रारम्भ कर दीं और उनके द्वार निर्मित जलरंगों का नियमित रूप से पेरिस में प्रदर्शन हुआ।
आलैं दान्येलू ने कई फिल्मों में संगीत परामर्शदाता के रूप में सहयोग दिया, जिसमें राबर्टो रोजेलिनी का भारत पर वृत्तचित्र और जन रनुअर की महान कृति “द रिवर” शामिल है। उनके द्वार संकलित ध्वनि संकलनो के अंशों का उपयोग कई फिल्मी निर्देशकों, नृत्य निर्देशकों (उदाहरण के लिए बेजार ने “भक्ति” और अपनी अन्य कृतियों) और कई देशों के रेडियो और टेलीविजनों ने भी किया।
आलैं दान्येलू और उनके काम को आधार बनाकर तीन वीडियों कार्यक्रमों का भी निर्माण हुआ है — तेलेविज्योने देला स्वीजेरा इतालियाना द्वारा निर्मित ला वोचे देय्यो देई (लुगानो १९९५), ए० एम० मैस्किवन (पेरिस १९८७) द्वारा निर्मित “शिव शरण”, और एक सांस्कृतिक प्रोग्राम अपोस्त्रोफ (आई० एन० ए० पेरिस १९८१)।
आलैं दान्येलू को लेज्यों द ओनर ओर्द्र नोसियोनाल का “आफिसर” और कमान्डर आफ आर्ट्स ऐन्ड लेटर्स भी मनोनीत किया गया। १९८१ में उन्हें यूनेस्को/सी० आई० एम= का संगीत पुरस्कार दियागया और १९८७ में यूनेस्को का “काठमाण्डू” मेडल। वे अंतर्राष्ट्रीय संगीत परिषद के मानद सदस्य थे, बर्लिन और वेनिस में स्थित अन्तर्राष्ट्रीय संगीत संस्थान के मानद चेयरमैन भी, और उन्हें १९८९ में “वर्ष का व्यक्तित्व” चुना गया। १९९१ में उन्हें नए संगीत के लिए सर्वोच्च पुरस्कार दिया गया और १९९२ में उन्हें भारतीय राष्ट्रीय संगीत, नृत्य और रंगमंच अकादमी का सदस्य नियुक्त किया गया, और उसी साल बर्लिन की सीनेट द्वारा एमेरिट्स प्रोफेसर भी नियुक्त किया गया।
उनकी पुस्तकें बारह देशों में प्रकाशित हुयी हैं, अंग्रेजी, फ्रेंच, जर्मन, इटालियन, स्पेनिश, पुर्तगाली और जापानि भाषाओं में। अलैं दान्येलू एक एकाकी विचारक थे जिनका नाता किसी भी पाश्चात्य चिन्तन परम्परा — चाहे वह राजनीतिक हो या दार्शनिक या धार्मिक — से नहीं जोड़ा जा सकता है। उन्होंने सदैव आम प्रचलित विचारधाराओं का बड़ा विरोध किया और वे पश्चिम के कठोर पारखी थे। उन्होंने नस्लीय और सांस्कृतिक सम्मान और एक तारतम्यपूर्ण और बुद्धिसंगत जातीय समाज के लिए संघर्ष किया — अधिकांशतः समताकरण और समतावादी लोकतंत्र की अवधारणाओं को ठुकराते हुये। उनका ध्वज था — स्वतन्त्रता, भिन्नता और बहुवाद — तीनों ऐसी परिकल्पनाएँ जो वर्तमान युग के नारों और आज की बौद्धिक विचारधारा के खिलाफ जाती हैं। नतीजन, उनका अधिकतर कार्य किसी महत्वपूर्ण समर्थक गुट के अभाव में महज ज्ञान बनकर रह गया। इस सबके बावजूद उनका काम उन समस्याओं के समाधान और ऐसे मौलिक विचार पेश करता है जो पश्चिम नहीं कर सकता।
हिन्दुत्व द्वारा रेखांकित संस्कृति और धर्म के महत्व का पक्का विश्वासी होने के कारण आलैं दान्येलू ने खुद को हमेशा एक हिन्दू समझा और अपने अन्तिम साक्षात्कार में घोषित किया, “भारत मेरा वास्तविक घर है”।
अपने संस्मरणों के एक हाल के परिशिष्ट में उन्होंने लिखा “एक ही मूल्य जिस पर मैं कभी सवाल नहीं उठाता हूँ, वे हैं शिक्षाएँ जो मैंने शैव हिन्दू धर्म — जो किसी भी तरह के रूढ़िवाद को ठुकराता चलता है — से पायी हैं, क्योंकि मैंने ऐसी कोई दूसरी विचार शैली आज तक नहीं पायी जो दैवी सत्ता और विश्व की निहित संरचनाओं को बुद्धिग्राह्य करने में इतनी दूर तक, इतनी स्पष्टता से और इतनी गहराई एवं बुद्धिमानी के साथ जाती हो।”
वापस यूरोप में आलैं दान्येलू ने अपना समय रोम, बर्लिन, लाजैन और पेरिस के बीच बिताया। उनका सर्वाधिक प्रिय स्थान रोम के निकट, लाजियों की पहाड़ियों में, अंगूर के बगीचों के बीच छुपा एक बड़ा सा घर था। उनकी मृत्यु २७ जनवरी १९९४ को स्विट्जरलैण्ड में हुयी, और एक अच्छे हिन्दू की तरह — जो वे थे — उन्होंने निर्देश रख छोड़े कि उनके अवशेषों का दाह संस्कार किया जाए।